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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> सुग्रीव और विभीषण

सुग्रीव और विभीषण

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :24
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4376
आईएसबीएन :0000

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सुग्रीव और विभीषण का चरित्र-चित्रण....

Sugriva Aur Vibhishan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संयोजकीय

रामकथा शिरोमणि सद्गुरुदेव परमपूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज की वाणी और लेखनी दोनों में यह निर्णय कर पाना कठिन है कि अधिक हृदयस्पर्शी या तात्त्विक कौन है। वे विषयवस्तु का समय, समाज एवं व्यक्ति की पात्रता को आँकते हुए ऐसा विलक्षण प्रतिपादन करते हैं कि ज्ञानी, भक्त या कर्मपरायण सभी प्रकार के जिज्ञासुओं को उनकी मान्यता के अनुसार श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति हो जाती है।

हमारे यहाँ विस्तार और संक्षेप, व्यास और समास दोनों ही विधाओं के समयानुकूल उपयोग की परम्परा रही है। घटाकाश और मटाकाश दोनों ही चिंतन और प्रतिपादन के केन्द्र रहे हैं। प्रवचनों के प्रस्तुत छोटे अंक घटाकाश के रूप में हैं, उनमें सब कुछ है पर संक्षेप में है। पाठकों की कई बार ऐसी राय बनी कि थोड़ा साहित्य छोटे रूप में भी हो ताकि प्रारम्भिक रूप में या फिर यात्री आदि में लोग किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए उसे साथ लेकर चल सकें। इस मनोधारणा से यह कार्य श्रेयस्कर है।
रायपुर (छत्तीसगढ़) के श्री अनिल गुप्ता एवं समस्त परिवार का आर्थिक सहयोग इसमें सन्निहित है। उन्हें महाराजश्री का आशीर्वाद !

मैथिलीशरण

कृतज्ञता ज्ञापन


श्रीसद्गुरवै नमः

हमारे परिवार के आध्यात्मिक-प्रेरणास्रोत पूज्यपिता श्री नारायण प्रसाद गुप्तजी (आरंग वाले) दिनांक 13-11-96 को अपने दिव्य धाम के लिए प्रस्थान कर गये। उन्हीं धार्मिक विचारों से प्रेरित परिवार को इस कार्य द्वारा माता सरस्वती के मन्दिर में एक दिव्य सुमनांजलि समर्पित करने का पुण्य अवसर मिला। इस सबके पीछे सद्गुरु महाराजजी की कृपा एवं ईश्वरेच्छा ही मूल कारण है। उस परम शक्तिमान के प्रति हम सदैव श्रद्धानत हैं।

यहाँ पर भाई मैथिलीशरणजी एवं परम विदुषी दीदी मंदाकिनीजी जो श्री सद्गुरदेव के अत्यन्त प्रेमी एवं निकट हैं तथा उन सभी श्रद्धालुओं के प्रति हार्दिक धन्यवाद देना हमारा परम कर्त्तव्य है जिनका इस पुस्तक-माला में, श्रीगुरुदेव के प्रवचनों के संयोजन में, विशेष सहयोग और श्रद्धाभावना से श्री सद्गुरुदेव महाराज जी के ज्ञान, आनन्द, श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, दया, मैत्री सरलता, साधुता, समता, सत्य, क्षमा आदि दैवी गुणों के विपुल भण्डार से समय-समय पर ग्रन्थ के रूप में सुलभ कराते रहते हैं।

श्रीराम में हमारी अखण्ड भक्ति बनी रहे,
श्रीसद्गुरुदेव की कृपा सब पर वर्षित हो।


सुग्रीव और विभीषण


‘रामचरितमानस’ में एक ओर सुग्रीव का चरित है और दूसरी ओर श्रीविभीषण हैं और दोनों के चरितों में जो भगवान् का मिलन होता है, उस मिलन में श्रीहनुमानजी ही मुख्य कारण बनते हैं। फिर भी सुग्रीव और विभीषण के चरित्र में अन्तर है और उस अन्तर का मुख्य तात्पर्य यह है कि भगवत्प्राप्ति के लिए किसी एक विशेष प्रकार के चरित और व्यक्ति का वर्णन किया जाय तो उसको सुनने वाले या पढ़ने वाले के मन में ऐसा लगता है कि इस चरित्र में जो सद्गुण हैं, जो विशेषताएँ हैं, वे हमारे जीवन में नहीं हैं और यदि किसी विशेष प्रकार के सद्गुण के द्वारा ही ईश्वर को पाया जा सकता है तो हम ईश्वर की प्राप्ति के अधिकारी नहीं हैं।

प्रस्तुत भ्रम का निराकरण करने के लिए ‘श्रीरामचरितमानस’ में न जाने कितने पात्रों की सृष्टि की गयी है, उनके चरित्र का वर्णन किया गया है और यदि उन पर दृष्टि डालें तो उनके आचार में, उनके स्वभाव में एवं एक-दूसरे से भिन्नता-ही-भिन्नता दिखायी देती है, पर सर्वथा भिन्नता दिखायी देती है, पर सर्वथा भिन्नता दिखायी देने पर भी जब उन्हें भगवत्प्राप्ति होती है तो इसके द्वारा संसार के समस्त जीवों को यह आश्वासन मिलता है कि भगवत्प्राप्ति के लिए किसी एक प्रकार के विशेष व्यक्तित्व की ही अपेक्षा नहीं है। मानो जो व्यक्ति जैसा भी है, उस रूप में ही वह भगवान् को प्राप्त कर लेता है।
विभीषण और सुग्रीव के चरित्र में भी बड़ी भिन्नता है। विभीषण लंका की प्रतिकूल परिस्थितियों में रहकर भी भगवान् की पूजा करते हैं, भगवान् भजन करते हैं। विभीषण के लिए हम कह सकते हैं कि वे ऐसे जीव हैं कि जो साधक हैं। उनकी साधना का जो वर्णन किया गया है, वह बड़ा सांकेतिक है। विभीषण पूर्वजन्म में धर्मरुचि थे और उस समय वे प्रतापभानु नाम के धर्मात्मा राजा के मन्त्री थे। उस समय भी उनका यही वर्णन किया गया है कि-


सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीति।
नृप हित हेतु सिखव नित नीती।।1/154/3


धर्मरुचि की धर्म में अत्यन्त रुचि थी, नाम ऐसा है और वे राजा प्रतापभानु को निरन्तर नीति की ही प्रेरणा देते रहते थे। प्रतापभानु के चरित्र में ‘श्रीरामचरितमानस’ में दो संकेत बड़े महत्त्व के दिये गये हैं, जिनमें दोनों पक्ष प्रकट किये गये हैं। जब भी रावण और कुम्भकर्ण का वर्णन किया गया तो यह अवश्य बताया गया कि पूर्वजन्म में क्या थे ? यद्यपि यह नहीं लिखा जाता तो भी कुछ विशेष अन्तर नहीं पड़ता, पर ‘रामायण’ में इस बात पर बड़ा बल दिया गया है कि रावण और कुम्भकर्ण के रूप में हम जिन दो पात्रों को देखते हैं, वे पूर्वजन्म में कौन थे ?

प्रतापभानु और अरिमर्दन नाम के दो धर्मात्मा राजा थे और वे ही आगे चलकर रावण और कुम्भकर्ण के रूप में राक्षस बनकर जन्म लेते हैं, यह कहा गया है कि शंकरजी के दो गण थे, वे रावण और कुम्भकर्ण बनते हैं, या यह कहा गया कि भगवान् विष्णु के द्वारपाल जय और विजय रावण और कुम्भकर्ण बने। यह बताने का मुख्य तात्पर्य यह है कि वस्तुतः जीवन मूलतः बुरा नहीं है। रावण और कुम्भकर्ण भी पूर्व जन्म में जय और विजय थे। जो भगवान् के द्वारपाल हैं, देवताओं में शिरोमणि हैं, रुद्रगण भी देवता हैं और प्रतापभानु एक श्रेष्ठ उदात्त चरित्र वाला मनुष्य है। उसका राक्षस के रूप में परिणत हो जाना या जो भगवान शंकर के या भगवान् विष्णु के पार्षद हैं, उनका राक्षस के रूप में परिणत हो जाने में मूल तात्त्विक अभिप्राय क्या है ? इसमें दो बातें बड़े महत्त्व की हैं।

मूल रूप में वे जय और विजय हैं या शंकरजी के गण हैं, या प्रतापभानु और अरिमर्दन हैं, लेकिन मध्य में वे राक्षस बन जाते हैं और फिर अन्त में क्या होता है ? यहाँ आदि और अन्त को मिलाया गया है। अन्त में ऐसा वर्णन आता है कि जब रावण की मृत्यु होती है तो रावण का तेज निकलकर भगवान् में विलीन हो जाता है, भगवान् में समा जाता है। इसका मूल तात्त्विक तात्पर्य यह है कि जीव जब ईश्वर का अंश है तो मूलतः वह पवित्र होगा ही। जीव क्या है ?


ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुख रासी।।7/116/2


अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि के रूप में जिस जीव का वर्णन किया गया है, वह जीव अपने मूल रूप में शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त है। यही सत्य इन पात्रों के जीवन के माध्यम से बताया गया है और अन्त में भी उसी स्थिति की प्राप्ति होती है जिसमें जीव एवं ब्रह्म से एकत्व का उदय होता है, लेकिन मध्य में ऐसी स्थिति है कि जब वह अपने अन्तःकरण की दुर्वृत्तियों के कारण मलिन और अशुद्ध जैसा प्रतीत होता है और देवत्व और मनुष्यत्व से गिर करके राक्षसत्व में आ जाता है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि व्यक्ति में बुराई तो स्वाभाविक है और सद्गुणों के लिए उसे प्रयत्न करना पड़ता है, पर यदि आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करके देखें तो जीव मूलतः शुद्ध है, केवल मध्य में ही वह रावण, कुम्भकर्ण मूर्तिमान् अहंकार है और मेघनाद मूर्तिमान् काम है। शुद्ध जीव जब मोहग्रस्त होता है, अभिमानग्रस्त होता है, कामग्रस्त होता है तब उसके जीवन में राक्षसत्व दिखायी देता है और अन्त में उस राक्षसत्व का विनाश कैसे हो सकता है ? इसी पद्धति का ‘श्रीरामचरितमानस’ में वर्णन किया गया है।

विभीषण के पूर्वजन्म में धर्मरुचि के रूप में उसकी धर्म में बड़ी रुचि थी, लेकिन प्रतापभानु के जीवन में ऐसी अज्ञान की वृत्ति दिखायी देती है कि जब कपटमुनि ने पूछा कि तुम्हे  क्या चाहिए ? तब उसने यह कहा कि मुझे अमर बना दीजिए।


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